कुछ यूँ भी मुझे रास हैं तन्हाइयाँ अपनी रहती हैं जिलौ में मिरे परछाइयाँ अपनी मशहूर यही लोग कभी अहल-ए-नज़र थे! अब ढूँडते फिरते हैं जो बीनाइयाँ अपनी अपना ही सहारा था सर-ए-म'अरका-ए-ज़ात किस काम की थीं वर्ना सफ़-आराइयाँ अपनी मैं और भरे शहर में इस तरह अकेला! वो सौंप गया है मुझे तन्हाइयाँ अपनी लौ तुम ने चराग़ों की बढ़ाई तो है 'राशिद' घेरे में न ले लें तुम्हें परछाइयाँ अपनी