कुछ ऐसा है फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना बरसों से कि सब भूले हुए हैं का'बा-ओ-बुत-ख़ाना बरसों से न अब मंसूर बाक़ी है न वो दार-ओ-रसन लेकिन फ़ज़ा में गूँजता है ना'रा-ए-मस्ताना बरसों से चमन के नौनिहाल इस ख़ाक में फूलें फलें कैसे यहाँ छाया हुआ है सब्ज़ा-ए-बेगाना बरसों से ये आँखें मुद्दतों से ख़ूगर-ए-बर्क़-ए-तजल्ली हैं नशेमन बिजलियों का है मिरा काशाना बरसों से तिरे क़ुर्बां इधर भी एक झोंका अब्र-ए-रहमत का जबीनों में गिरह है सज्दा-ए-शुकराना बरसों से 'सुहैल' अब किस को सज्दा कीजिए हैरत का आलम है जबीं ख़ुद बन गई संग-ए-दर-ए-जानाना बरसों से