कुछ ऐसे शब-ए-हिज्र में दिल मेरा जला है रोई है शम्अ' हाथ पतंगे ने मला है काटे न कटेगी मुझे लगता है कुछ ऐसा फ़ुर्क़त की ये शब है या बुरी कोई बला है दुख-दर्द वो मुफ़्लिस के भला देखेगा कैसे दौलत की चका-चौंद में दाइम जो पला है हर कोई कवी चाह के भी बनता नहीं है फ़ितरत ही में बस्ती है जो ये काव्य-कला है क्यों छोड़ के निज देश वतन जाए पराए 'नासिर' को वतन अपना तो जन्नत से भला है