कुछ और दिल-लगी नहीं उस बद-नसीब से हम जानते हैं खेलते हो तुम रक़ीब से मैं बद-गुमानियों का भी मम्नून हो गया वो हाल पूछ लेते हैं मेरा तबीब से दुश्मन बनाए हैं मिरी क़िस्मत ने सैंकड़ों चाहा है तुझ को ख़ल्क़ ने मेरे नसीब से ऐ नासेह-ए-शफ़ीक़ रहे कुछ तो छेड़-छाड़ ज़िक्र-ए-हबीब कम नहीं वस्ल-ए-हबीब से मानिंद-ए-बर्क़ मिस्ल-ए-हवा सूरत-ए-निगाह अक्सर निकल गए हैं वो मेरे क़रीब से पूछो जनाब-ए-'दाग़' की हम से शरारतें क्या सर झुकाए बैठे हैं हज़रत ग़रीब से