कुछ और फ़ज़ा निखरे दिल और महक जाए

कुछ और फ़ज़ा निखरे दिल और महक जाए
शाने से तिरा आँचल अब और ढलक जाए

बे-दीद हो तुम बेहद अब ज़ीस्त बहक जाए
तख़्ईल भी सो जाए एहसास भी थक जाए

फ़ितरत भी तरसती है अब तेरी नवाज़िश को
फिर रात महक जाए फिर सुब्ह दमक जाए

जिस ने तुझे पाया था जिस ने तुझे खोया है
अब किस की इनायत से इस दिल की कसक जाए

इक दिल के सुलगने को हम इश्क़ नहीं कहते
उस सम्त भी सीने में कुछ आग भड़क जाए

इस कूचा-ए-रंगीं के ए'जाज़ को क्या कहिए
इक उम्र भटक जाए ईमान बहक जाए

आओ ग़म-ए-दुनिया को अंदाज़-ए-तरब दे दें
भीगे हुए मौसम में बोतल ही खनक जाए

ईमान-ए-मोहब्बत भी इक कुफ़्र-ए-मोहब्बत है
हर लहज़ा गुमाँ गुज़रे हर बात पे शक जाए

इस हिज्र की शिद्दत से ख़ुद इश्क़ लरज़ता है
दिखते हुए शाने पर जब ज़ुल्फ़ ढलक जाए

उस जिस्म का अफ़्साना हम भी तो सुनें 'सैफ़ी'
क्यों तज़्किरा-ए-रंगीं अग़्यार ही तक जाए


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