मस्जिदों में भी वही है जो सनम-ख़ानों में नाम उस शोख़ का रुस्वा हुआ इंसानों में रात घुलती ही गई ज़ुल्फ़ महकती ही रही यूँ ही ढलती थी सहर ऐश के पैमानों में आज वो क़द्र-ए-जुनूँ है ना तक़ाज़ा-ए-जमाल कितनी बदली है शब-ए-माह शबिस्तानों में अब किसे याद दिलाएँ तिरे आँचल की नमी इक गवाही थी वही इश्क़ के पैमानों में मस्लहत नाज़ तजाहुल ग़ज़ब एहसास शुऊ'र रंग भरते रहे 'सैफ़ी' मिरे अफ़्सानों में