कुछ भी अयाँ निहाँ न था कोई ज़माँ मकाँ न था देर थी इक निगाह की फिर ये जहाँ जहाँ न था साज़ वो क़तरे क़तरे में सोज़ वो ज़र्रे ज़र्रे में याद तिरी किसे न थी दर्द तिरा कहाँ न था इश्क़ की आज़माइशें और फ़ज़ाओं में हुईं पाँव तले ज़मीं न थी सर पे ये आसमाँ न था इश्क़ हरीम-ए-हुस्न में अपने सहारे रह गया सब्र का भी पता न था होश का भी निशाँ न था एक को एक की ख़बर मंज़िल-ए-इश्क़ में न थी कोई भी अहल-ए-कारवाँ शामिल-ए-कारवाँ न था इश्क़ ने अपनी जान को रोग कई लगा लिए हिज्र-ओ-विसाल उमीद-ओ-बीम कौन बला-ए-जाँ न था ख़लवतियान-ए-राज़ से हाल-ए-विसाल-ए-यार पूछ हुस्न भी बे-नक़ाब था इश्क़ भी दरमियाँ न था दौर-ए-हयात महज़ था इस के हरीम-ए-राज़ में कैफ़-ओ-असर का ज़िक्र क्या ज़ीस्त का भी निशाँ न था शिकवा-ए-दर-गुज़र-नुमा क्यूँ है कि हुस्न इश्क़ से इतना तो बद-गुमाँ न था इतना तो सर-गराँ न था