कुछ भी कर सकता नहीं तदबीर से आदमी मजबूर है तक़दीर से टुकड़े क्यों करते हो दिल शमशीर से तोड़ो ये शीशा निगह के तीर से जम सकी रंगत न बज़्म-ए-ग़ैर में उखड़ी उखड़ी आप की तक़रीर से आशिक़ों पर ज़ुल्म करने के सिवा और क्या आता है चर्ख़-ए-पीर से क्यों मुरीद-ए-इश्क़ ऐ वहशत न हूँ सिलसिला मिलता है ये ज़ंजीर से लो तवाज़ो का कमानों से सबक़ राह करना दिल में सीखो तीर से क़ाबिल-ए-तेग़-ए-अदा क्या हम नहीं काटते हो क्यों गला शमशीर से ये तमन्ना है कि देखा ही करूँ जी बहलता है तिरी तस्वीर से है ये नक़्शा चार दिन के हिज्र में शक्ल अब मिलती नहीं तस्वीर से ले के दिल उन की दिलेरी देखिए कैसे आ बैठे हैं बे-तक़सीर से वस्ल की शब में भी उलझन ही रही आप की उलझी हुई तक़दीर से ज़ब्त कब तक एक दिन आख़िर तुझे खींच लेंगे आह की तासीर से आज फ़िक्र-ए-ग़ैर में जाता था मैं मिल गए वो ख़ूबी-ए-तक़दीर से आड़ में उन की फ़लक बच बच गया वर्ना दबते हैं जवाँ कब पीर से ए'तिराज़ों पर तुले हैं क्यों हरीफ़ 'बज़्म' क्या हासिल है इस तक़दीर से मैं तो दिल-दादा फ़साहत का हूँ 'बज़्म' क्यों न हो उल्फ़त कलाम-ए-'मीर' से