महव ऐसा हूँ सर-ओ-पा की ख़बर कुछ भी नहीं तेरे जल्वा के सिवा मद्द-ए-नज़र कुछ भी नहीं अब तो थामे हुए फिरते हो कलेजा अपना तुम तो कहते थे कि आहों में असर कुछ भी नहीं हम बयाँ करते हैं जुमला की अदम के तरकीब मुब्तदा उस की तो हस्ती है ख़बर कुछ भी नहीं ख़ौफ़ है उन पे न ज़ाहिर कहीं उल्फ़त हो मिरी दिल में गो दर्द है कहता हूँ मगर कुछ भी नहीं निकले जन्नत से जो आदम तो जहाँ में आए इतनी दिलचस्प तो बस्ती है मगर कुछ भी नहीं पुतली वालों की सी चादर है हिजाब-ए-हस्ती सब उधर ही के करिश्मे हैं इधर कुछ भी नहीं जब से ये जान लिया दामन-ए-रहमत है वसीअ' हश्र का उन के गुनहगार को डर कुछ भी नहीं