कुछ भी नहीं है क्या पस-ए-दीवार देखना साए को डूबते हुए हर बार देखना औरत हूँ मेरी माँ ने सिखाया कि उम्र भर आईना बन के आइना-बरदार देखना ये सोच कर ही मैं ने जलाया नहीं चराग़ क्या रौशनी को बरसर-ए-पैकार देखना मैं तो चराग़-ए-शब थी चलो बुझ गई मगर तुम तो सहर के ख़ैर से आसार देखना जब ए'तिबार-ए-दीदा-ए-दिल उठ गया तो फिर क्या रह गया है यार-ए-तरह-दार देखना 'ज़रयाब' क्या ख़रीदने निकली हो धूप में क्या गर्मियों में गर्मी-ए-बाज़ार देखना