कुछ दिनों से जो तबीअत मिरी यकसू कम है दिल है भर-पूर मगर आँख में आँसू कम है तुझे घेरे में लिए रखते हैं कुछ और ही लोग यानी तेरे लिए ये हल्क़ा-ए-बाज़ू कम है तोड़ जैसे है कोई अपने ही अंदर इस का वर्ना ऐसा भी नहीं है तिरा जादू कम है मैं इन आफ़ात-ए-समावी पे करूँ क्यूँ तकिया क्या मिरी सारी तबाही के लिए तू कम है रंग-ए-मौसम ही मोहब्बत का दिया जिस ने बिगाड़ शहर भर के लिए क्या एक ही बद-ख़ू कम है पेड़ की छाँव पे करती है क़नाअत क्यूँ ख़ल्क़ और क्यूँ सब के लिए साया-ए-गेसू कम है ज़िंदगी है वही सद-रंग मिरे चारों तरफ़ कुछ दिनों से मगर इस का कोई पहलू कम है वो भी जाने से हवा फिरता है बाहर और कुछ दिल पे अपना भी कई रोज़ से क़ाबू कम है शाइरी छोड़ भी सकता नहीं मैं वर्ना 'ज़फ़र' जानता हूँ इस अंधेरे में ये जुगनू कम है