कुछ हर्ज नहीं जाम जो बेगाना लगे है रिंदों से ख़फ़ा साक़ी-ए-मय-ख़ाना लगे है उस शाम की तौक़ीर को आशिक़ से ही पूछो ये हुस्न उसे सुब्ह-ए-सनम-ख़ाना लगे है देखे है रुख़-ए-जानाँ पे जब ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ इस दौर का फ़रज़ाना भी दीवाना लगे है इक मैं ही नहीं लगता तिरे प्यार का मारा हर शख़्स तिरे प्यार का दीवाना लगे है देखा है मुझे जब भी कहा अहल-ए-ख़िरद ने दिल मेरा किसी शम्अ का परवाना लगे है महफ़िल से मिरे ज़िक्र पे चल देते हैं उठ कर ये तर्ज़-ए-अमल उन का रक़ीबाना लगे है इस हुस्न की महफ़िल के हर अंदाज़ से यारो 'आदिल' ही हमें बानी-ए-अफ़्साना लगे है