कुछ हो साक़ी ये तिरा जाम-ए-इनायत तो नहीं दिल में हसरत है मगर हाथ में ताक़त तो नहीं शाम-ए-हिज्राँ में कभी पहले उजाला न हो शामिल-ए-दर्द कोई चश्म-ए-इनायत तो नहीं इक उचटता सा करम भी न मयस्सर आया अहल-ए-ग़म से तिरी नज़रों को अदावत तो नहीं बख़्शिश-ए-आम सही तेरी निगाहों में मगर अपना दामन कभी फैलाऊँ ये आदत तो नहीं