कुछ न कुछ सोचते रहा कीजे आसमाँ देखते रहा कीजे चार-दीवारी-ए-अनासिर में कूदते-फाँदते रहा कीजे इस तहय्युर के कार-ख़ाने में उँगलियाँ काटते रहा कीजे खिड़कियाँ बे-सबब नहीं होतीं ताकते-झाँकते रहा कीजे रास्ते ख़्वाब भी दिखाते हैं नींद में जागते रहा कीजे फ़स्ल ऐसी नहीं जवानी की देखते-भालते रहा कीजे आईने बे-जहत नहीं होते अक्स पहचानते रहा कीजे ज़िंदगी इस तरह नहीं कटती फ़क़त अंदाज़ते रहा कीजे ना-सिपासान-ए-इल्म के सर पे पगड़ियाँ बाँधते रहा कीजे