कुछ तिरे इंतिज़ार ने मारा कुछ दिल-ए-बे-क़रार ने मारा कुछ ग़म-ए-दिल ने कर दिया मजबूर कुछ ग़म-ए-रोज़गार ने मारा थे ख़िज़ाँ में भी मुतमइन हम लोग हम को रंगीं बहार ने मारा नर्गिस-ए-अश्क-बार की सौगंद गेसू-ए-ताबदार ने मारा दो क़दम रह गए थे मंज़िल को ख़िज़्र के ए'तिबार ने मारा यूँ भी दुश्वार थी न मंज़िल-ए-इश्क़ ज़ीस्त के कारोबार ने मारा आप को हज़रत-ए-'सहरवर्दी' रंजिश-ए-बे-शुमार ने मारा