कुछ तो तस्कीन-ए-इज़्तिराब मिले वो नहीं मिलते तो शराब मिले मैं समंदर में भी रहा प्यासा आब में भी मुझे सराब मिले मुँह लगी छूटती नहीं वा'इज़ अब जो मिलना है सो 'अज़ाब मिले चूम लूँ मैं वरक़ वरक़ उस का तेरे चेहरे से जो किताब मिले ज़िंदगी ज़िंदगी सी लगती है आप जब से हमें जनाब मिले कौन ता'बीर की करे चिंता फिर से कोई हसीन ख़्वाब मिले दिन 'इबादत में हो गुज़र यारब वक़्त-ए-मग़रिब मगर शराब मिले या-ख़ुदा दिल मिले शजर जैसा ग़म जो मुझ को हैं बे-हिसाब मिले खुल के रोना भी कब नसीब हुआ फिर न ये हस्ती-ए-हबाब मिले दिल के निकले ग़रीब सब के सब हम को जो साहब-ए-निसाब मिले कुछ तो पहले ही दर-ब-दर था 'सदा' दोस्त भी ख़ानुमाँ-ख़राब मिले