कुछ यूँ मैं अपने आप से कटता चला गया बस ख़ाल-ओ-ख़द से रह गए चेहरा चला गया अफ़्साना मेरे जेहद का इतना सा था कि मैं अंदेशा-ए-यक़ीन से लड़ता चला गया आया नहीं पलट के उजाला कभी यहाँ हालाँकि घर से कब का अंधेरा चला गया भौंरे निडर थे कोह-ए-हक़ीक़त से जा लड़े मैं साया-ए-सराब से डरता चला गया जिस जा किया ज़रा सा कभी निय्यत-ए-क़ियाम उस जा के पेड़ पेड़ का साया चला गया इक लौ का रूद-ख़ाना-ए-मुज़्तर सा हूँ मगर चुप-चाप दश्त-ए-कर्ब में बहता चला गया यूँ मुब्तला-ए-ख़ौफ़ था मुझ से अदू मिरा लाशे पे मेरे तीर चलाता चला गया दुनिया उलझ के रह गई हिर्स-ओ-हवस के गिर्द 'मंसूर' कैफ़-ए-वज्द में चलता चला गया