मैं बनाने बैठता हूँ कुछ तो बन जाता है कुछ कार-ए-ख़िल्क़त में कभी होता भला ऐसा है कुछ रोज़-ए-महशर ऐ ख़ुदा इस बात का रखना ख़याल मैं ने दुनिया में तिरी बोया था कुछ काटा है कुछ नूर-ए-आगाही की गहराई अभी पूछो नहीं दाम-ए-माहियत में ये इंसाँ अभी उलझा है कुछ आज फिर से कोई आशिक़ रम्ज़-ए-इरफ़ाँ पा गया आज फिर से महफ़िल-ए-ख़ूबाँ में सन्नाटा है कुछ आतिश-ए-उल्फ़त में जलने का मज़ा लेने तो दे राख मेरी मत उड़ा मुझ को अभी जलना है कुछ जाँ निकलने की दुआ दो मुझ को मरने की नहीं जाँ निकलना और कुछ है और मर जाना है कुछ याद करते हो बहुत तन्हाई में अब भी मुझे मान भी जाओ तुम्हारा और मिरा रिश्ता है कुछ ख़ैर हो क़ासिद तिरी क्या ख़ूब है आमद का वक़्त आ पहुँचता है तू तब जब ज़ख़्म-ए-दिल भरता है कुछ बस यही कह देंगे गर पूछा गया हम से सवाल दिल के अरमाँ को कभी कुचला है कुछ पाला है कुछ क्यों भला 'मंसूर' की तख़्लीक़ में आए कमाल उस की निय्यत में है कुछ कहता है कुछ करता है कुछ