कुल आलम-ए-वुजूद कि इक दश्त-ए-नूर था सारा हिजाब तीरा-दिली का क़ुसूर था समझे थे जोहद-ए-इश्क़ में हम सुर्ख़-रू हुए देखा मगर तो शीशा-ए-दिल चूर चूर था पहुँचे न यूँ ही मंज़िल-ए-इज़हार-ए-ज़ात तक तहत-ए-शुऊर इक सफ़र-ए-ला-शुऊर था था जो क़रीब उस को बसीरत न थी नसीब जो देखता था मुझ को बहुत मुझ से दूर था मुबहम थे सब नुक़ूश नक़ाबों की धुँद में चेहरा इक और भी पस-ए-चेहरा ज़रूर था