कुंज-ए-ग़ज़ल न क़ैस का वीराना चाहिए जो ग़म मुझे है उस को अज़ा-ख़ाना चाहिए है जिस का इंतिज़ार पलक से फ़लक तलक अब आना चाहिए उसे आ जाना चाहिए या-रब मिरे लिबास से हरगिज़ गुमाँ न हो लेकिन मुझे मिज़ाज-ए-फ़क़ीराना चाहिए मिलती नहीं है नाव तो दरवेश की तरह ख़ुद में उतर के पार उतर जाना चाहिए ऐ दोस्त! मुझ से इश्क़ की यकसानियत न पूछ तू भी कभी कभी मुझे बेगाना चाहिए