किसी ने पकड़ा दामन और किसी ने आस्तीं पकड़ी न उट्ठा मैं ही उस कूचे से ये मैं ने ज़मीं पकड़ी ख़ुदा शाहिद है दिल पर चोट सी इक लग गई मेरे बहाना दर्द-ए-सर का कर के जब उस ने जबीं पकड़ी सिवा उन के न कहना और से आफ़त न कुछ आए न जाने बात मेरी क़ासिदा शायद कहीं पकड़ी भला अब मुझ से छुटता है कहीं उस शोख़ का चसका ये क्या है छेड़ मेरी हर घड़ी की हम-नशीं पकड़ी ग़ज़ब हैं आप भी मैं ने तो तुम से कान पकड़ा है हुआ जब कुछ मैं कहने को ज़बाँ मेरी वहीं पकड़ी ये क़िस्मत वस्ल की शब सुब्ह तक तकरार में गुज़री इधर कुछ मैं ने ज़िद पकड़ी उधर उस ने ''नहीं'' पकड़ी मुझे डसवाओ इक मार-ए-सियह से ये सज़ा दीजे जफ़ा की अपने साहिब की जो ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं पकड़ी ख़ुदा के फ़ज़्ल से ऐसी तबीअत है 'निज़ाम' अपनी ग़ज़ल दम में कही फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा से जो ज़मीं पकड़ी