क़ुर्बान हो रही है मिरी जाँ इधर-उधर वाँ रह पे है जो ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ इधर-उधर जाते हैं जब वो सू-ए-चमन सैर के लिए होते हैं साथ आशिक़-ए-नालाँ इधर-उधर हैं लख़्त-ए-दिल कहीं तो कहीं पारा-ए-जिगर रहते हैं पेश-ए-चश्म-ए-गुलिस्ताँ इधर-उधर हंगामा-ए-जुनूँ से जो दोनों हुए हैं चाक दामन इधर-उधर है गरेबाँ इधर-उधर ज़ुल्फ़ें छुटी हुई हैं जो चेहरे पे दो तरफ़ लहरा रहे हैं अफ़ई-ए-पेचाँ इधर-उधर देखा उन्हों ने मुर्दा मुझे मैं ने अश्क-बार आए नज़र हैं ख़्वाब-ए-परेशाँ इधर-उधर या दुश्मनों से क़त्अ हो या मुझ से तर्क-ए-रब्त क्यूँ दिल को कर रहे हो मिरी जाँ इधर-उधर मुतरिब वहाँ हैं जम्अ' नवा-साज़ उस तरफ़ होते हैं कल से ऐश के सामाँ इधर-उधर क्यूँ कर करूँ मैं बात चप-ओ-रास्त-ए-यार की रहते हैं साथ साथ निगहबाँ इधर-उधर वो अपनी हट पे हैं मुझे अपने कहे की ज़िद समझा रहे हैं दोनों को इंसाँ इधर-उधर आँखों पे साएबाँ हैं मज़े दीद के हों क्या फैले हुए हैं दामन-ए-मिज़्गाँ इधर-उधर वो बुत है मैं हूँ साहिब-ए-दीं बहर-ए-फ़ैसला होते हैं जम्अ' गब्र-ओ-मुसलमाँ इधर-उधर वो चाहते हैं आएँ मैं कहता हूँ आप जाऊँ किस लुत्फ़ पर है रग़बत-ए-एहसाँ इधर-उधर नालाँ वो अक़रबा से मैं हूँ मुख़बिरों से तंग किस किस तरह के दिल में हैं अरमाँ इधर-उधर हरजाई उन को कहते हैं बे-शर्म मुझ को लोग उठते हैं रात-दिन यही तूफ़ाँ इधर-उधर मंज़ूर है जो रंजिश-ए-साबिक़ का फ़ैसला हर रोज़ जम्अ' होते हैं मेहमाँ इधर-उधर हैं पहलुओं में दाग़ जो दोनों तरफ़ 'नसीम' जल्वा दिखा रहे हैं गुलिस्ताँ इधर-उधर