कुर्सी-ए-दिल पे तिरे जाते ही दर्द आ बैठे जैसे आईना-ए-बे-कार पे गर्द आ बैठे पहली मंज़िल पे ही टकरा के गिरे दुनिया से पाँव तुड़वा के तमाम अहल-ए-नवर्द आ बैठे दावत-ए-दीद जो उस क़ामत-ए-रंगीं की मिली बज़्म में हम भी लिए ये रुख़-ए-ज़र्द आ बैठे औरतें काम पे निकली थीं बदन घर रख कर जिस्म ख़ाली जो नज़र आए तो मर्द आ बैठे शहर इक सम्त से जंगल सा नज़र आने लगा शहर के दिल में भी क्या दश्त-नवर्द आ बैठे 'फ़रहत-एहसास' की ताज़ीम में उट्ठा था समाज और वो उस की जगह सूरत-ए-फ़र्द आ बैठे