कूज़े में इक समुंदर ज़र्रे में इक जहाँ है कैसे कहूँ कि हस्ती इक जिंस-ए-राएगाँ है इक सम्त ज़िंदगी का जलता हुआ मकाँ है इक सम्त सहमा सहमा ख़्वाबों का आसमाँ है तूफ़ान उठ रहा है रह रह के मुद्दतों से इक मौज की तड़प में दरिया रवाँ-दवाँ है क्या दाओ पर लगा है हर लम्हा ज़िंदगी का हर गाम मरहला है हर साँस इम्तिहाँ है इज़हार क्या करूँ मैं इस ज़िंदगी का तुम से सहरा की आंधियों में इक रेत का मकाँ है