क्या बुलबुल असीर है बे-बाल-ओ-पर कि हम गुल कब रखे है टुकड़े जिगर इस क़दर कि हम ख़ुर्शीद सुब्ह निकले है इस नूर से कि तो शबनम गिरह में रखती है ये चश्म-ए-तर कि हम जीते हैं तो दिखा देंगे दावा-ए-अंदलीब गुल बिन ख़िज़ाँ में अब के वो रहती है मर कि हम ये तेग़ है ये तश्त है ये हम हैं कुश्तनी खेले है कौन ऐसी तरह जान पर कि हम तलवारें तुम लगाते हो हम हैंगे दम-ब-ख़ुद दुनिया में ये करे है कोई दरगुज़र कि हम इस जुस्तुजू में और ख़राबी तो क्या कहें इतनी नहीं हुई है सबा दर-ब-दर कि हम जब जा फँसा कहीं तो हमें याँ हुई ख़बर रखता है कौन दिल तिरी इतनी ख़बर कि हम जीते हैं और रोते हैं लख़्त-ए-जिगर है 'मीर' करते सुना है यूँ कोई क़ीमा जिगर कि हम