क्या चले कूचा-ए-जानाँ की हवा मेरे साथ रोज़ आ लगता है इक दश्त नया मेरे साथ एक ज़माना है यहाँ दस्त-ओ-गरेबाँ मुझ से तू ने क्या दामन-ए-दिल बाँध लिया मेरे साथ घर के आँगन से परिंदे भी परे रहते हैं जब से रहता है कोई दोस्त ख़फ़ा मेरे साथ रोज़-ए-अव्वल से हूँ मैं सब्ज़-ए-मोहब्बत का असीर साया-अफ़्गन है दरख़्तों की दुआ मेरे साथ कुछ मिरा अहद भी क़ातिल है तो कुछ बहर-ए-जुनूँ ज़िंदगी रखती है इक हश्र बपा मेरे साथ दर-ब-दर हो के भी हटता नहीं रस्ते से फ़क़ीर मो'जिज़े करती है वो गर्दिश-ए-पा मेरे साथ बात करता है सहीफ़ों में कोई और 'सईद' पेश आता है कोई और ख़ुदा मेरे साथ