क्या दास्ताँ थी पहले बयाँ ही नहीं हुई फिर यूँ हुआ कि सुब्ह अज़ाँ ही नहीं हुई दुनिया कि दाश्ता से ज़्यादा न थी मुझे यूँ सारी उम्र फ़िक्र-ए-ज़ियाँ ही नहीं हुई गुल-हा-ए-लुत्फ़ का उसे अम्बार करना था कम-बख़्त आरज़ू कि जवाँ ही नहीं हुई ता-सुब्ह मेरी लाश रही बे-कफ़न तो क्या बानू-ए-शाम नौहा-कुनाँ ही नहीं हुई