क्या गुमाँ था कि न होगा कोई हम-सर अपना दिन ढले साया मुक़ाबिल हुआ बढ़ कर अपना घर से नालाँ थे मगर देखी है दुनिया हम ने है अगर कोई अमाँ-गाह तो बस घर अपना दर्द पे कैसा शरर बन के उठा पहलू में हम तो यूँ ख़ुश थे कि दिल कर लिया पत्थर अपना रात-भर कोई न सोए तो सुने शोर-ए-फ़ुग़ाँ चाँद को दर्द सुनाता है समुंदर अपना दुख उठाए तो बहुत रंग ख़ुद अपने देखे कम क़यामत से न था जो भी था मंज़र अपना रोज़-ओ-शब अपने किसी से नहीं मिलते हैं 'कमाल' हम तो लाए हैं अलग सब से मुक़द्दर अपना