हुनर जो तालिब-ए-ज़र हो हुनर नहीं रहता महल-सरा में कोई कूज़ा-गर नहीं रहता बिछड़ते वक़्त किसी से हमें भी था ये गुमाँ कि ज़ख़्म कैसा भी हो उम्र-भर नहीं रहता मैं अपने हक़ के सिवा माँगता अगर कुछ और तो मेरे हर्फ़-ए-दुआ में असर नहीं रहता कुछ और भी गुज़र-औक़ात के वसीले हैं गदा ख़ज़ीना-ए-कशकोल पर नहीं रहता वो कौन है जो मुसाफ़िर के साथ चलता है ख़याल-ए-यार भी जब हम-सफ़र नहीं रहता जिसे बनाते सजाते हैं जिस में रहते हैं सवेरे आँख खुले तो वो घर नहीं रहता खुली फ़ज़ा न रहे याद अगर परिंदों को ग़म-ए-शिकस्तगी-ए-बाल-ओ-पर नहीं रहता हम एक शब में कई ख़्वाब देखते हैं सो अब वो आ के ख़्वाब में भी रात-भर नहीं रहता 'कमाल' लोग भी क्या हैं गुमाँ ये रखते हैं जो बस गया हो कहीं दर-ब-दर नहीं रहता