क्या ही मिल जाएगा तुम को मुझे तड़पाने से रोकते क्यों हो मुझे अपने क़रीब आने से शहर वालों से कहा उस ने उठा कर पत्थर कोई रिश्ता ही नहीं है मिरा दीवाने से जन्नत-ओ-हूर के क़िस्सों में मुझे उलझा कर शैख़ जी आप कहाँ चल दिए मयख़ाने से मुँह से फिर ख़ून उगलता ही फिरेगा शब-भर गर जो ज़ाहिद कभी पी ले मिरे पैमाने से ये मिरा शौक़ मुझे आज कहाँ ले आया मेरी मय्यत भी उठी है तो कुतुब-ख़ाने से मेरे हिस्से में जो चादर है लिखी तू ने ख़ुदा कम न पड़ जाए कहीं पाँव को फैलाने से मुझ को इक ख़्वाब ने इतना है रुलाया कि 'ज़ुहैब' अब तो डर लगता है पलकों को भी झपकाने से