क्या हिज्र में तस्कीन की सूरत नहीं रहती रहती है मगर तेरी बदौलत नहीं रहती अब जैसे कोई काम ही रुकता नहीं अपना अब जैसे किसी शय की ज़रूरत नहीं रहती दुनिया से गुज़र जाते हैं दुनिया की तलब में दुनिया से हमें कोई शिकायत नहीं रहती वो मौज-ए-सद-आवाज़ बुलाती तो है अब भी मुझ को ही उधर जाने की फ़ुर्सत नहीं रहती नागिन की तरह रात सिमट आती है दिल में जब सामने इक चाँद सी सूरत नहीं रहती कहते थे बहुत दिल न लगा कार-ए-हवस में ले देख कि इस शौक़ में इज़्ज़त नहीं रहती