क्या जाने कहाँ ले गई तन्हाई हमारी मुद्दत हुई कुछ भी न ख़बर आई हमारी इस दश्त-ए-गुम-आसार में आने के नहीं हम है और कहीं बादिया-पैमाई हमारी इस राह से हम बच के निकल आए वगर्ना बैठी थी कमीं-गाह में रुस्वाई हमारी रह रह के जो तस्वीर चमकती है फ़ज़ा में हम उस के हैं शैदाई वो शैदाई हमारी दिल बैठने लगता है यही सोच के अब भी फिर रात तबीअत नहीं घबराई हमारी अब ख़ाक-ए-नदामत से उट्ठें भी तो कहाँ जाएँ होनी ही नहीं जब कहीं शुनवाई हमारी इक दिल के तक़ाज़े की ही तकमील है वर्ना क्या अर्ज़-ए-हुनर क्या सुख़न-आराई हमारी