क्या इस का गिला कीजे उसे प्यार ही कब था वो अहद-ए-फ़रामोश वफ़ादार ही कब था उस ने तो सदा पूजे हैं उड़ते हुए जुगनू वो चाँद-सितारों का परस्तार ही कब था हम डूब गए जागती रातों के भँवर में हाथ उस का हमारे लिए पतवार ही कब था आमों की हसीं रुत के सिवा भी तो वो कूके लेकिन किसी कोयल का ये किरदार ही कब था आवाज़ जो मैं दूँ तो किसी और को छू ले इस आँख-मिचोली से वो बेज़ार ही कब था तुम उस को बुरे नाम से यारो न पुकारो ये नाम उसे बाइस-ए-आज़ार ही कब था मशहूर-ए-ज़माना हैं 'क़तील' उस की उड़ानें वो दाम-ए-मोहब्बत में गिरफ़्तार ही कब था