क्या जाने किस की धुन में रहा दिल-फ़िगार चाँद संगम पे रोज़-ओ-शब के ढला बार बार चाँद आई न रात भर कोई पनघट पे साँवली पानी में छुप के बैठा रहा बे-क़रार चाँद किरनों की डोरियों से उलझते हो किस लिए कुछ भी न दे सकेगा तुझे दाग़-दार चाँद बाज़ू के दाएरे वो महक चूड़ियाँ खनक दो-साए ज़र्द-चाँदनी धीमी पुकार चाँद सूरज था वो तो शाम से पहले ही ढल गया नीले उफ़ुक़ पे और भी हैं बे-शुमार चाँद हर रोज़ मेरे घर में उतरता है किस लिए मुझ को भी अपने शहर में इक दिन उतार चाँद बस्ती के लोग जानिए क्या सोचते रहे बादल की छत पे सोया रहा सोगवार चाँद अब चाँदनी के नाम से नफ़रत सी हो गई 'इकराम' ज़िंदगी को लगे ऐसे चार चाँद