क्या कहें कैसे बसर हिज्र की रातें की हैं उम्र भर चाँद से इक शख़्स की बातें की हैं कब अज़ानों से न मामूर था का'बा दिल का कब फ़क़ीरों ने क़ज़ा इश्क़-सलातें की हैं तेरी ख़ुशबू से कोई ख़त न हवा पर लिखा ख़ुश्क किस धूप ने फूलों की दवातें की हैं हार तो खेल का हिस्सा थी मगर फ़र्क़ ये है मात से पहले ही तह हम ने बिसातें की हैं लौट जाते हैं ये टकरा के सर-ए-साहिल से मुज़्तरिब ज़ेहनों ने कब पार फ़ुरातें की हैं डोली उट्ठी न तही-चश्म सितारों की 'नजीब' सुब्ह-ए-नमनाक ने रुख़्सत ये बरातें की हैं