क्या कहूँ कब धुआँ नहीं उठता मुझ से अपना ज़ियाँ नहीं उठता भींचते रहते हैं दर-ओ-दीवार और दिल से मकाँ नहीं उठता आबरू थाम थाम लेती है हाथ वर्ना कहाँ नहीं उठता उठती जाती हैं सारी उम्मीदें ख़दशा-ए-जिस्म-ओ-जाँ नहीं उठता हाथ उठते रहे हैं मुझ पर 'शाह' मुझ से बार-ए-ज़बाँ नहीं उठता