क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख इक तरफ़ जाने का ग़म है इक तरफ़ आने का दुख है अजब बे-रंगी-ए-अहवाल मुझ में मौजज़न ने ही जीने की तलब है ने ही मर जाने का दुख तोड़ डाला था सभी को दर्द के आज़ार ने सह न पाया था कोई किरदार अफ़्साने का दुख ख़ून रो उठती हैं सब आँखें निगार-ए-सुब्ह की बाँटती है शब कभी जो आईना-ख़ाने का दुख शम्अ' भी तो हो रही होती है हर पल राएगाँ क्यूँ फ़क़त हम को नज़र आता है परवाने का दुख सर पटकती थीं मुसलसल माैज-हा-ए-तिश्नगी होंट के साहिल पे ख़ेमा-ज़न था पैमाने का दुख लोटता है जब भी सीने पर शनासाई का साँप लहर उठता है बदन में एक अनजाने का दुख वार देता हूँ मैं 'सारिम' अपनी सब आबादियाँ मुझ से देखा ही नहीं जाता है वीराने का दुख