क्या क़यामत है कि इक शख़्स का हो भी न सकूँ ज़िंदगी कौन सी दौलत है कि खो भी न सकूँ घर से निकलूँ तो भरे शहर के हंगामे हैं मैं वो मजबूर तिरी याद में रो भी न सकूँ दिन के पहलू से लगा रहता है अंदेशा-ए-शाम सुब्ह के ख़ौफ़ से नींद आए तो सो भी न सकूँ ख़त्म होता ही नहीं सिलसिला-ए-मौज-ए-सराब पार उतर भी न सकूँ नाव डुबो भी न सकूँ 'शाज़' मालूम हुआ इज्ज़-बयानी क्या है दिल में वो आग है लफ़्ज़ों में समो भी न सकूँ