क्या ख़बर थी मुन्हरिफ़ अहल-ए-जहाँ हो जाएँगे होते होते मेहरबाँ ना-मेहरबाँ हो जाएँगे मुस्कुरा कर उन का मिलना और बिछड़ना रूठ कर बस यही दो लफ़्ज़ इक दिन दास्ताँ हो जाएँगे इश्क़ सादिक़ है तो अपने अज़्म-ए-मंज़िल की क़सम हर क़दम पर साथ लाखों कारवाँ हो जाएँगे ये मआल-ए-इश्क़ होगा ये किसे मालूम था दिल के नग़्मे एक दिन आह-ओ-फ़ुग़ाँ हो जाएँगे गर तरन्नुम पर ही 'दानिश' मुनहसिर है शाइरी फिर तो दुनिया भर के शाइर नग़्मा-ख़्वाँ हो जाएँगे