वाइज़ तू अगर उन के कूचे से गुज़र जाए फ़िरदौस का मंज़र भी नज़रों से उतर जाए रूदाद-ए-शब-ए-ग़म यूँ डरता हूँ सुनाने से महफ़िल में कहीं उन की सूरत न उतर जाए इक वादा-ए-फ़र्दा की उम्मीद पे ज़िंदा हूँ ऐ काश किसी सूरत ये रात गुज़र जाए काबे ही के रस्ते में मय-ख़ाना भी पड़ता है उलझन में ये रह-रौ है जाए तो किधर जाए तुम उन से मिलो 'दानिश' ये ध्यान रहे लेकिन ख़ुद्दारी-ए-फ़ितरत का एहसास न मर जाए