क्या ख़बर थी ये दिन भी देखेंगे ख़ून बोएँगे सब्र काटेंगे किस को मुंसिफ़ कहें किसे क़ातिल बच रहे कल तलक तो सोचेंगे मैं अगर यूँ ही सर उठाता रहा लोग अपने ही बुत को पूजेंगे आप अपना भी जाएज़ा ले लें हम तो अपनी सज़ा को पहुँचेंगे क़ौम मज़हब ज़मीन रंग ज़बाँ यूँही कब तक लकीरें खींचेंगे क्या तुम्हें भी गुमान था 'अंजुम' हम ख़ुद अपने बदन को नोचेंगे