क्या क्या मज़े से रात की अहद-ए-शबाब में छोड़ूँ न उम्र-ए-रफ़्ता गर आ जाए ख़्वाब में इक दिल के वास्ते ये फँसे वो अज़ाब में रहते हैं अपनी ज़ुल्फ़ ही के पेच-ओ-ताब में है शौक़-ए-वस्ल तुझ से लिपटता हूँ बार बार वर्ना ये मस्तियाँ तो नहीं थीं शराब में इतनी न कीजे जाने की जल्दी शब-ए-विसाल देखे हैं मैं ने काम बिगड़ते शिताब में हो जाए चाक सीना कि दिल घुट के मर चला ऐ चारा-जू किसी को फँसा मत अज़ाब में कर बहर ओ बर की हस्ती-ए-मौहूम पर नज़र थोड़ी सी ख़ाक डाल दी चश्म-ए-पुर-आब में तब क़त्ल-गह में क़त्ल-ए-उदू को चले हैं वो मेरा लहू मिला के पिया जब शराब में किन मेहनतों से वस्ल पे राज़ी हुए हैं वो सौ नामा-बर हुए जो सवाल ओ जवाब में अख़्तर-शुमारियों में निकलता है दम कहीं 'तस्कीं' तुम्हीं को दख़्ल नहीं है हिसाब में