क्या लुत्फ़ हवाओं के सफ़र में नहीं रक्खा या जज़्बा-ए-पर्वाज़ ही पर में नहीं रक्खा नन्हा सा दिया भी शब-ए-तीरा में बहुत है सौदा किसी ख़ुर्शीद का सर में नहीं रक्खा बुझ जाएँगे ख़्वाबों के चराग़ आब-ए-रवाँ से इस डर से उन्हें दीदा-ए-तर में नहीं रक्खा शायद दर-ओ-दीवार भी पहचान न पाएँ बरसों से क़दम अपने ही घर में नहीं रक्खा हर रोज़ कोई तख़्ता मगर टूट रहा है हर-चंद कि कश्ती को भँवर में नहीं रक्खा सूरज तो पराया था पराया ही रहा वो क्यूँ तुम ने शजर राह-ए-गुज़र में नहीं रक्खा तकमील के पैकर में जिसे ढूँढ रहे हैं ख़ाका भी 'सलीम' इस का नज़र में नहीं रक्खा