क्या लुत्फ़ ज़िंदगी का जो नादानियाँ न हों सीने में दिल हो और परेशानियाँ न हों तर्क-ए-तअल्लुक़ात तो करते हो देखना तुम को ख़ुदा-न-कर्दा पशेमानियाँ न हों ये सारी इज़्तिराब-ए-मुसलसल की बात है दिल को सुकून हो तो ग़ज़ल-ख़्वानियाँ न हों ज़ख़्म-ए-जिगर को अपने छुपाता रहा हूँ मैं इस ख़ौफ़ से कि उन को पशेमानियाँ न हों वो दिन गुज़र गए कि मोहब्बत गुनाह थी अब तो मुशाहिदात को हैरानियाँ न हों उस दिल पे सोज़-ओ-साज़-ए-मोहब्बत हराम है जिस में नशात-ए-ग़म की फ़रावानियाँ न हों ऐ 'शौक़' बर्क़-ओ-बाद का इस में क़ुसूर क्या क़िस्मत बुरी न हो तो परेशानियाँ न हों