फूल से ढलका हुआ ओस का क़तरा हूँ मैं शाख़ से टूट के गिरता हुआ पत्ता हूँ मैं छोड़ के चल दिया है जैसे बदन ही मुझ को जिस की पहचान नहीं कोई वो साया हूँ मैं जो कि दर आया था रौज़न से किरन के हमराह तेरे कमरे में वो बे-फ़ाएदा ज़र्रा हूँ मैं वादी-ओ-कोह-ओ-बयाबाँ से गुज़र कर आख़िर शहर में आ के जो खो जाए वो रस्ता हूँ मैं अपनी आँखों से नज़र ही नहीं आता मुझ को अपने चेहरे के लिए आप ही पर्दा हूँ मैं बूझ के और अदक़ हो वो मुअ'म्मा हुई तू खुल के जो और उलझ जाए वो उक़्दा हूँ मैं ख़ुद उजड़ कर किया है मैं ने किसी को आबाद नक़्श में ढल के जो मिट जाए वो जज़्बा हूँ मैं मुद्दआ' है कि मुकम्मल करूँ तस्लीम उसे कल जो कहता था तिरी ज़ात का हिस्सा हूँ मैं 'शौकत' इस सीने में महसूस नहीं अब वो भी दिल के बाइ'स कभी दावा था कि ज़िंदा हूँ मैं