क्या मंज़िल-ए-ग़म सिमट गई है इक आह में राह कट गई है फिर सामने है पहाड़ सी रात फिर शाम से नींद उचट गई है पहलू में ये कैसा दर्द उठा है ये कौन सी राह कट गई है आप आए नहीं तो मौत कम्बख़्त आ आ के पलट पलट गई है उठ उठ के मरीज़-ए-ग़म ने पूछा क्या हिज्र की रात कट गई है फिर 'सैफ़' हवा-ए-याद-ए-रफ़्ता हर ग़म की नक़ाब उलट गई है