तक़दीर से करें कि गिला बाग़बाँ से हम छोड़ा है कब छुड़ाए गए आशियाँ से हम फ़ुर्क़त में काम लेते तो ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ से हम लाते मगर ये दिल ये कलेजा कहाँ से हम तफ़्सील-ए-बज़्म-ए-हुस्न सुनाईं कहाँ से हम जब आए दरमियाँ में उठे दरमियाँ से हम मंज़िल पे पहुँचे क़ाफ़िला वाले मगर हनूज़ खेला किए ग़ुबार-ए-पस-ए-कारवाँ से हम कट जाए शाख़-ए-ज़ीस्त से पत्ता न जाने कब बाग़-ए-जहाँ में अब तो हैं बर्ग-ए-ख़िज़ाँ से हम अहद-ए-शबाब में जो बररते थे मिस्ल-ए-तीर पीरी में देखते हैं उन्हीं को कमाँ से हम फिर हम समझते मिल गई हम को वफ़ा की दाद रूदाद-ए-इश्क़ सुनते जो उन की ज़बाँ से हम दुनिया का रंज है न तो उक़्बा की फ़िक्र है यूँ बे-नियाज़ हो गए दोनों-जहाँ से हम क्या जाने कोई अश्क-ए-नदामत की आबरू लाए हैं तारे तोड़ के ये आसमाँ से हम मंज़िल शनास-ए-राह-ए-हक़ीक़त से पूछिए हम से ये कारवाँ है कि हैं कारवाँ से हम 'शो'ला' समझ में आएँगे क्या राज़-हा-ए-इशक़ जब तक कि आश्ना न हों दर्द-ए-निहाँ से हम