क्या नवा-ए-अबस ऐ ग़ुंचा-दहन करते हैं

क्या नवा-ए-अबस ऐ ग़ुंचा-दहन करते हैं
बाग़ में तेरी सिफ़त मुर्ग़-ए-चमन करते हैं

गुफ़्तुगू बज़्म-ए-जहाँ में है तिरी बातों की
ज़िक्र तेरा ही तमाम अहल-ए-सुख़न करते हैं

तुझ को ले जाएँ चमन में तो बिगड़ जाए हवा
हम फ़क़त ख़ातिर-ए-मुर्ग़ान-ए-चमन करते हैं

जिस्म-ए-ख़ाकी में मिरी रूह यही करती है
क़फ़स-ए-तंग में जो मुर्ग़-ए-चमन करते हैं

सर्व-क़द ग़ुंचा-दहन सुम्बुल-ओ-गुल गेसू-ओ-रुख़
तुझ को क्या देखते हैं सैर-ए-चमन करते हैं

देखने आते हैं मेरा तन-ए-पुर-दाग़ ऐ 'रश्क'
लोग जूही में तमाशा-ए-चमन करते हैं


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