हूरों में है चर्चा तिरी नाज़ुक-बदनी का शोहरा है चमन में तिरी गुल-पैरहनी का रुत्बा कम-ओ-बाला नहीं मुहताज-ओ-ग़नी का आबाद रहे मुल्क ग़रीब-उल-वतनी का क्यूँकर न करूँ सज्दा-ए-शुक्राना-ए-ख़ालिक़ मस्जूद-ए-ख़लाइक़ हूँ न मुहताज ग़नी का और इस से सिवा क्या कहूँ ऐ शाम-ए-ग़रीबाँ मफ़्हूम बनाया है ग़रीब-उल-वतनी का ऐ 'रश्क' वो मिसराओं से है क़ंद-ए-मुकर्रर जिस शे'र में मज़मून है शीरीं-दहनी का