क्यों बयाबाँ बयाबाँ भटकता फिरा क्यों परेशाँ रहा ग़म-गज़ीदा रहा आज इक नौजवाँ मुझ से कहने लगा क़ैस पागल था दामन-दरीदा रहा मेरी राहों में गुमनाम गलियाँ भी थीं क़स्र-ए-याराँ भी था शहर-ए-अग़्यार भी मैं किसी आस्ताने का पत्थर न था बू-ए-गुल था कि हर सू परीदा रहा जाने कितने मुसाफ़िर यहाँ आए हैं अन-गिनत नाम हैं सक़्फ़ ओ मेहराब पर इक पुरानी इमारत के साए तले मैं बहुत देर तक आब-दीदा रहा अजनबी बन के रातों की तन्हाई में मुझ से मेरा पता पूछते ही रहे ये मिरे लब जो बरसों मुक़फ़्फ़ल रहे ये मिरा सर जो सदियों ख़मीदा रहा तुम किताबों में महफ़ूज़ कर लो मुझे क्या अजब है कोई पढ़ने वाला मिले मैं वो आवाज़ हूँ जिस का सामेआ' नहीं मैं वो लहजा हूँ जो ना-शुनीदा रहा